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गार्ह॑पत्येन सन्त्य ऋ॒तुना॑ यज्ञ॒नीर॑सि। दे॒वान्दे॑वय॒ते य॑ज॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

gārhapatyena santya ṛtunā yajñanīr asi | devān devayate yaja ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गार्ह॑पत्येन। स॒न्त्य॒। ऋ॒तुना॑। य॒ज्ञ॒ऽनीः। अ॒सि॒। दे॒वान्। दे॒व॒य॒ते। य॒ज॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:15» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जो (सन्त्य) क्रियाओं के विभाग में अच्छी प्रकार प्रकाशित होनेवाला भौतिक अग्नि (गार्हपत्येन) गृहस्थों के व्यवहार से (ऋतुना) ऋतुओं के साथ (यज्ञनीः) तीन प्रकार के यज्ञ को प्राप्त करानेवाला (असि) है, सो (देवयते) यज्ञ करनेवाले विद्वान् के लिये शिल्पविद्या में (देवान्) दिव्य व्यवहारों का (यज) संगम करता है॥१२॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वानों से सब व्यवहाररूप कामों में ऋतु-ऋतु के प्रति विद्या के साथ अच्छी प्रकार प्रयोग किया हुआ अग्नि है, सो मनुष्य आदि प्राणियों के लिये दिव्य सुखों को प्राप्त कराता है॥१२॥जो सब देवों के अनुयोगी वसन्त आदि ऋतु हैं, उनके यथायोग्य गुणप्रतिपादन से चौदहवें सूक्त के अर्थ के साथ इस पन्द्रहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि लोगों ने कुछ का कुछ वर्णन किया है॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरपि भौतिकाग्निगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

यो सन्त्योऽग्निर्गार्हपत्येनर्त्तुना सह यज्ञनीरसि भवति, स देवयते शिल्पिने देवान् यज यजति सङ्गमयति॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (गार्हपत्येन) गृहपतिना संयुक्तेन व्यवहारेण। गृहपतिना संयुक्ते ञ्यः। (अष्टा०४.४.९१) अनेन ञ्यः प्रत्ययः। (सन्त्य) सन्तौ सनने क्रियासंविभागे भवः स सन्त्योऽग्निः। अत्र ‘सन्’ धातोर्बाहुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययः, ततो भवे छन्दसि इति यत्। (ऋतुना) ऋतुभिः सह (यज्ञनीः) यज्ञं त्रिविधं नयति प्रापयतीति सः। सत्सूद्विषद्रुह० इति क्विप्। (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (देवान्) दिव्यव्यवहारान् (देवयते) कुर्वते शिल्पिने (यज) यजति शिल्पविद्यायां सङ्गमयति। अत्र लडर्थे लोट्॥१२॥
भावार्थभाषाः - यो विद्वद्भिः सर्वेषु व्यवहारकृत्येषु प्रत्यृतुं विद्ययां सम्यक् सम्प्रयोजितोऽयमग्निरस्ति स मनुष्यादिप्राणिभ्यो दिव्यानि सुखानि प्रापयति॥१२॥।चतुर्दशसूक्तार्थेनास्य पञ्चदशसूक्तार्थस्य विश्वेदेवानुयोग्यत्वादीनां यथाक्रमं प्रतिपादनेन सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिरध्यापकविलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांकडून सर्व व्यवहाररूपी कामांत ऋतूनुसार विद्येने संप्रयोगात आणलेला अग्नी माणूस इत्यादी प्राण्यांसाठी दिव्य सुख प्राप्त करून देतो. ॥ १२ ॥
टिप्पणी: या सूक्ताच्या अर्थाचेही सायणाचार्य इत्यादी व युरोपदेशवासी विल्सन इत्यादी लोकांनी वेगळे वर्णन केलेले आहे.